मजदूर का सफ़र…
पूजा कुमारी “धानी”
सफ़र करना हमारी नियति में है,
पाँवों के ये ज़ख़्म सफ़र के छाले नहीं।
कोई यूँ ही फेंक देता है दूध-भात का कटोरा,
हमारे हिस्से में कभी तो सुखे निवाले नहीं।
मज़दूर हैं हम मजबूर तो नहीं, भले ही स्याह हो राहें,
मगर ये न समझिए कि हमारे हिस्से में उजाले नहीं।
गति है हम जैसे श्रमिकों से व्यवस्था में,
इस व्यवस्था की कड़ी हैं हम कोई निराले नहीं।
वेदना को शब्दों में बख़ूबी बयां किया है धानी जी आपने
Very nice