आपातकाल: भारतीय लोकतंत्र के इस काले अध्याय को कैसे भुलाया जा सकता है….

VOB Desk

अभी देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुए महज 28 साल ही हुए थे, कि भारतीय लोकतंत्र को एक बार फिर अपने कब्जे में लेकर देश को बंधक बनाने की योजना बनायी जा रही थी। लेकिन इस बार गुलाम बनाने वाले कोई विदेशी या फिर आक्रमणकारी नहीं थे बल्कि हमारे देश के वो शासन-कारी थे जिन्हें भारतवर्ष की जनता ने ही चुनकर राज सौंपा था। इन शासनकारियों ने सम्पूर्ण देश को मानो एक जेल में बदल दिया था, आम जनता सरकार की मनमर्जी के खिलाफ कुछ नहीं बोल सकती थी, अगर कोई कुछ कहता भी तो उसको जबरदस्ती पकड़कर जेल में डाल दिया जाता। 1971 के आम चुनावों में, इंदिरा गांधी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई थीं, कांग्रेस ने 518 में से 352 लोकसभा सीटें जीती थीं।

कैसे हुई शुरुआत….

यह 12 जून 1975 का दिन था, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने रायबरेली से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजनारायण द्वारा दायर याचिका पर फैसला सुनाया था। याचिका में राजनारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ आरोपों की बौछार की, जिसमें मतदाताओं को शराब के साथ रिश्वत देना, अभियानों के लिए वायु सेना के विमानों का दुरुपयोग करना शामिल था। अदालत ने गांधी को चुनाव में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का दोषी ठहराया। जस्टिस सिन्हा ने चुनाव रद्द कर दिया और गांधी को छह साल के लिए चुनाव लड़ने से रोक दिया। हाईकोर्ट के फैसले का मतलब इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री का पद छोड़ना होगा।

लेकिन 24 जून 1975 को, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, न्यायमूर्ति वीआर कृष्णा अय्यर ने कहा कि वह निर्णय पर पूर्ण रोक नहीं लगाएंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें प्रधान मंत्री बने रहने की अनुमति दी, लेकिन कहा कि वह अंतिम फैसला आने तक एक सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं।

इसी का फायदा उठाकर 25 जून मध्यरात्रि 11:45 बजे देश के तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने स्वयं द्वारा तय किये गए आपातकाल सम्बंधित दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवाए हालांकि राष्ट्रपति के मुख्य सचिव ने उन्हें आगाह भी किया कि कैबिनेट से बिना पास किये हुए अध्यादेश पर हस्ताक्षर करना उचित नहीं है। आखिर इस दिन ऐसा क्या हुआ कि भारत के इतिहास में इसे काला अध्याय कहा जाने लगा। दरअसल यह ऐसा समय था जिसमें देश के हर नागरिक को ऐसा लगा रहा था कि उससे बहुत कुछ जबरदस्ती तरीके से झपट लिया गया है, हवा, पानी, खाना, रोजगार और सबसे महत्वपूर्ण वैचारिक स्वतंत्रता। यदि किसी की आवाज पर प्रहार किया जाय तो मन का विचलित होना स्वाभाविक है। लोकतंत्र के सभी घटक जो इसे रोक सकते थे, एक सनक के आगे शिथिल पड़ गए थे।

फाइल फोटो

सबसे पहले लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को ढहाया गया….

यह तारीख थी 25 जून 1975 की और समय मध्य रात्रि का, जिस समय हम आपके लिए यह स्टोरी लिख रहे हैं, 25 जून 1975 को दिल्ल्ली के रामलीला मैदान में देश के कुछ नेताओं ने रैली की, अगले दिन इसकी खबर अखबारों में न छपे इसलिए  मध्यरात्रि में ही दिल्ली के बहादुर शाह जफ़र मार्ग स्थित सभी अखबारों के दफ्तरों की बिजली लाइन काट दी गयी। और मध्यरात्रि को आपातकाल की घोषणा के बाद प्रेस पर पूरी तरह से सेंशरशिप लगा दी गयी थी, यानी कि अब प्रेस भी वही छाप सकती थी जो सरकार चाहे। ऐसे में अगर कोई पत्रकार अपने कर्तव्यों के पालन को करने का प्रयास भी करता तो उसे पकड़कर जेल में ठूंस दिया जाता।  प्रेस की सर्वोच्च संस्था प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया सरकार का एक हिस्सा बन गयी, प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया ने सरेंडर कर दिया, हर एक प्रेस दफ्तर में सरकार के लोग बैठ गये जो एक एक लाइन पढ़कर देखते थे कहीं सरकार के खिलाफ तो कुछ नहीं लिखा जा रहा।

आपातकाल लग चुका था अब अगले दिन क्या….

एक रेडियो ब्रॉडकास्ट में, इंदिरा गांधी ने देश के लोगों को बताया कि सरकार के खिलाफ एक गहरी साजिश रची गई थी, यही वजह है कि आपातकाल लगाया गया। आपात काल लगने के बाद अगले दिन जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई इत्यादि सभी विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रेस की स्वतंत्रता तो छीन ही ली गई थी और कई वरिष्ठ पत्रकारों को जेल भी भेज दिया गया था जो कांग्रेस की विचारधारा से मेल नहीं खाते थे। उस समय, आपातकाल का विरोध करने वाले आम नागरिकों को जेल में बंद करके दंडित किया गया था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस अवधि के दौरान करीब 11 लाख लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था। ऐसा भी कहा जाता है कि उस समय देश प्रधान मंत्री कार्यालय से नहीं, बल्कि प्रधान मंत्री निवास से चलता था।

उस वक्त को याद करते हुए रूह काँप जाती है….

ग्रामीण परिवेश के कुछ लोगों के सामने अगर आज भी इंदिरा गाँधी का नाम ले दिया जाय तो खौफ में आ जाते हैं। देश के प्रतिष्ठित पत्रकार उस समय को याद कर भावुक हो जाते हैं, उस वक्त पत्रकारों के लिए “कोड ऑफ़ कंडक्ट” लगाया गया। देश के प्रत्येक हिस्से में लोगों को जबरदस्ती पकड़कर उनकी नसबंदी की गयी, इस सामूहिक नसबंदी अभियान को स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे विवादास्पद घटनाओं में से एक माना जाता है। अमेरिकी सरकार ने भी भारत में सभी वस्तुओं को रोक दिया, जिससे लोगों में कमोडिटी प्राइसिंग और सामान्य संकट बढ़ गया था।

जून 1975 में लगा यह आपातकाल 21 महीने तक चला, भारत के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी के लिए भी यह इतिहास का सबसे काला अध्याय है।

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