क्या हम प्रकृति को इंसान का दर्जा दे सकते हैं….?
अंशुमान बाजपेयी
न्यूज़ीलैंड की ‘वांगानुई नदी, नाव चलाने लायक यहाँ की सबसे लंबी नदी है और यह साइकिल चालकों, पैदल, डोंगी और दैनिक यात्रियों को आकर्षित करती है। “यह महान नदी पहाड़ों से समुद्र की ओर बहती है। Te Araroa न्यूजीलैंड की लंबी दूरी का ट्रम्पिंग मार्ग है और नदी एवं सड़क ते अरोआ का हिस्सा हैं। इस नदी को एक कानूनी फैसले के तहत एक ‘इंसान’ का दर्जा दिया गया है। उसके पास स्थित जंगल और पहाड़ को भी जल्द ही ये दर्जा मिल सकता है।
“मैं नदी हूँ और नदी मैं हूँ, हम दोनों एक हैं।” इन शब्दों के साथ माओरी के मूलनिवासी, वांगानुई नदी के साथ अपने कभी न टूट सकने वाले रिश्ते का ऐलान करते हैं। माओरी न्यूजीलैंड के स्वदेशी पॉलिनेशियन लोग हैं। यह अपने उद्गम से लेकर समुद्र तक के 180 मील के सफर को पहाड़ी जगहों से घुमावदार मोड़ लेते हुए पार करती है। इस सफर के एक हिस्से को नेशनल पार्क का दर्जा भी प्रदान है।
इस नदी को माओरियों ने 700 सालों से संरक्षित किया है, इसका लालन-पालन किया है और इस पर निर्भर रहे हैं। जब 1800 के आसपास यूरोपीय लोग यहाँ आकर बस गए तो मूलनिवासियों के हक को धीरे धीरे कर कम कर दिया गया और कई आधिकारिक कानून भी लागू कर दिए गए, जिनकी वजह से उनके अधिकार पूर्णतः खत्म हो गए।
तब से उन्होंने अपनी ‘वांगानुई’ का पतन और सिर्फ पतन ही देखा है। उसकी वादियों को डायनामाइट से एक एक कर उड़ा दिया गया ताकि सैलानियों के लिए रास्ते बनाये जा सकें। नदी में से खनन किया गया जिसने उसका रूप नष्ट किया और साथ ही साथ नदी के मुहाने में शहरों के नाले खोल दिये गए। माओरी, जिनके लिए यह नदी उनकी संस्कृति का हिस्सा थी और एक व्यक्ति (तुपुना) के समान थी, यह एक बहुत दुखदायी विषय था।
लेकिन, 20 मार्च 2017 एक बहुत सराहनीय कदम उठाया गया। पूरे न्यूजीलैंड ने वो माना जी माओरी एक लंबे समय से कहते आ रहे हैं। एक कानून बनाकर यह साफ कर दिया गया कि यह नदी एक जीवित प्राणी है, इसके सारे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हिस्से एक सम्पूर्ण मानव हैं और इसीलिए “इस नदी को वे सारे कानूनी अधिकार, शक्तियां प्रदान की जाती हैं, जो एक नागरिक में समाहित होती हैं।”
यह प्रकृति प्रेम का ऐसा अकेला नमूना नहीं है, बल्कि उसके बाद ‘ते उरेवेरा’ नाम के 820 वर्ग मील में फैले एक नेशनल पार्क को भी यह दर्जा दिया गया। बहुत जल्द ही ‘तारानाकि’ नामक एक पर्वत को भी यह दर्जा मिल सकता है।
हमारे प्रयास अब तक सफल नहीं हुए हैं….
भारत में भी ऐसे प्रयास किये गए हैं, यहां की पवित्र और जीवनदायिनी नदियों गंगा और यमुना को भी यह कानूनी अधिकार प्रदान किये गए लेकिन 7 जुलाई 2017 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तराखंड हाईकोर्ट के इस फैसले पर स्टे लगा दिया गया। और 20 मार्च को दिए गए इस फैसले को चुनौती उत्तराखण्ड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट जाके दी।
इन तरह के फैसलों को सिर्फ धर्म, अन्धविश्वास या मान्यताओं से जोड़कर नहीं देखना चाहिए बल्कि उनकी गहराइयों में पैठना चाहिए। ज़्यादा ज़रूरी ये है कि हम नदियों को हक़ जमाने की नज़र से नहीं बल्कि एक ज़िम्मेदारी की नज़र से देखें। जैसा की जॉन एफ़ केनेडी ने कहा “आप यह मत पूछिए की प्रकृति आप के लिए क्या कर सकती है, बल्कि यह कि आप उसके लिए क्या कर रहे हैं।” इस तरह के फैसले मुख्यतः प्रकृति और उसमें बसने वाले जीवों के प्रति संवेदना जागृत करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं और आज के समय की सबसे बड़ी मांग हैं।
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