शहर सूने गांव गुलजार…
पूनम मसीह
गुरुग्राम। कोरोना ने लगभग हर किसी की जिदंगी को बदल दिया है। रहने खाने से लेकर घूमने फिरने तक के लिए लोगों के बीच में डर को पैदा कर दिया है। हर कोई इससे बचने की कोशिश में है। भारत में सिर्फ कोरोना की ही मार नहीं है, बल्कि इसके साथ-साथ भूख, आवास ये सारी चीजें भी लोगों की परेशान कर रही है। बस इनकी तलाश में लोग शहरों से गांव की तरफ पलायन कर रहे हैं। मार्च के लॉकडाउन के बाद से ही लाखों की संख्या में लोगों ने गांव की तरफ रुख किया। शायद लोगों के पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था।
लॉकडाउन ने ऊपर से लेकर नीचे तक हर तबके के लोगों को प्रभावित किया है। उदारीकरण के बाद से ही गांव के लोगों का झुकाव शहरों की तरफ हो गया था। अच्छा खाना, कमाने के चक्कर में लोग गांव की खुली गलियों को बॉय करते हुए शहरों की तंग गलियों में प्रवेश करते गए। नतीजा यह हुआ कि गांव सूने होते और शहरों में लोगों का जीवन हसीन होता चला गया। हर कोई अपनी क्षमता से कमाने खाने लगा। कमाई के विकल्प भी ज्यादा थे। युवाओं के लिए अपने हिसाब से जिदंगी जीने का अपना ही एक मजा था। हर कोई बस दौड़ रहा था। किसी के पास टाइम नहीं था। सुबह से लेकर रात तक जिदंगी बस रेस लगा रही थी। कभी किसी ने सोचा नहीं था कि ये रेस भी रुक सकती है। लेकिन नियति को शायद यही मंजूर था और इस रेस को रोक दिया।
देश में कोरोना के बढ़ते मरीजों की संख्या को देखते हुए लॉकडाउन किया गया। लॉकडाउन से पहले ही की कई ऑफिसों में Work from home का विकल्प शुरु कर दिया गया था। लेकिन जैसे ही जनता कर्फ्यू का ऐलान किया गया कुछ लोग आने वाली विपत्ति से वाकिफ हो गए। इसलिए रविवार के कर्फ्यू से पहले शनिवार को ही लोग अपने अपने घरों के लिए निकल गए। रात के करीब 8 बज रहे थे, मैं एक दुकान पर खड़ी थी बड़ी जल्दी-जल्दी में एक लड़की आती है वो टेलर से कहती है आंटी जल्दी से ये सूट पर सिलाई मार दो मैं लेट हो रही हूँ। मैंने उससे पूछा कहां जाना है वो कहती कल से ऑफिस में छुट्टी है अपने ससुराल जा रही हूं अगर लेट हो गई तो बस छूट जाएगी। मेरे देखते-देखते बहुत सारे लोग उस रात को अपने घरों के तरफ निकले क्योंकि जहां वह रह रहे थे वो तो पराया था असली मकान तो कहीं और था।
इसके बाद शुरु हुआ पलायन का दौर। मार्च 24 को जब लॉकडाउन शुरु हुआ तो शहरों में बड़ी संख्या में लोग थे। मैंने खुद देखा कुछ दिनों तक बिल्डिंग में बहुत सारे लोग थे। शाम में जब सभी लोग छत्तों को गुलजार करते थे। कोई फोन पर बात कर रहा है, कोई एक्सरसाइज कर रहा है, बच्चे खेल रहे हैं, लेकिन जैसे-जैसे दिन आगे बढ़ने लगे लोगों के पास खाने पीने की भी परेशानी होने की लगी एक-एक करके बहुत सारे लोग अपने गांवो की तरफ प्रस्थान करने लगें। मेरी बिल्डिंग में भी कितने ही लोग थे जो धीरे-धीरे करके चले गए। हम जैसे कुछ ही लोग रहे गए जिनके पास यहां रुकने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं रहा गया था।
मेरे देखते–देखते शहर सूना होने लग गया छत्तों का गुलजार माहौल अकेलेपन और शांति ने ले लिया। वहीं दूसरी ओर गांव पूरी तरह से गुलजार होने लगे गए। कई सालों से अकेले-अकेले रहने वाला बेटा भी अपने मां पिता के पास पहुंच गया। गांव के घरों में देखते-देखते संख्या बढ़ती गई। वहीं दूसरी ओर शहर अकेला होता गया। सूने का एहसास उस दिन हुआ जब भूकंप आया। भूकंप के दो झटके आएं लेकिन बाहर लोगों का कोई हुजूम नहीं था। वहीं इससे पहले भी जब मैं दिल्ली में रहती थी साल 2014 में भूकंप आया था बिल्डिंगों के बाहर लोगों को जमावड़ लग गया था। लेकिन इस बार मुझे ऐसा कुछ नहीं दिखा। बल्कि गली में कुछ इक्का-दुक्का लोग ही नजर आए। अनलॉक 1.0 के अनुसार बहुत सारी चीजें खोलने की अनुमति दे दी है। लेकिन शाम में ऑफिस से आने वाले लोग बहुत कम दिखाई देते हैं छत्तों में तो अब लोग दिखने ही बंद हो गए है। एक मोबाइल दुकान के मालिक से मैंने पूछा लोगों को चले जाने से आपके कितने ग्राहक कम हो गए हैं बड़े दुःखी से मन से कहता मैडम सिर्फ मेदांता का स्टाफ ही यहां रह गए है बाकी सब चले गए। मैंने दोबारा उससे पूछा एक अनुमान के हिसाब से आपके कितने ग्राहक कम हो गए उसने साफ कहा लगभग 70 प्रतिशत ग्राहक कम हो गए हैं हमलोग खुद परेशान है कैसे चलेगा सब। लोगों शहरों का सूनाकर गांव को गुलजार करना शुरू कर दिया है, जिसकी सदियों से अपेक्षा की जा रही थी।
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