लड़कपन के सपनों पर जिम्मेदारी भारी
सुमित सिंह विशेन
हम सभी को आज भी अपना बचपन याद आता है। अधिकतर लोगों ने अपने बचपन को खुशियों के साथ जिया है। किसी ना किसी मजबूरी के कारण बहुत ही कम ऐसे लोग होंगे जो अपने बचपन याद ना करना चाहते हो। दरअसल यह एकमात्र वह अवस्था होती है, जिसमें न तो अपनी परवाह रहती है और न ही अपनों की, जिम्मेदारी जैसे शब्द से अपरचित रहने की अवस्था ही बचपन है, दुनियादारी की फिक्र का तो नामोनिशान ही छोड़िये।
लेकिन सच ये भी है कि हर कोई हर एक अवस्था एक जैसे नहीं जी पाता, आज धरातल पर कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो बचपन वाली अवस्था में जी तो रहे हैं, लेकिन बचपने उनसे कोसों दूर है।
ये कैसी लाचारी, बच्चों पर ही पेट भरने की जिम्मेदारी
आज वैश्विक महामारी कोरोना ने उन सभी मासूमों से ये बचपन भी छीन लिया है जो पहले से ही गरीबी की मार झेल रहें हैं। वह बच्चे जिनके माता-पिता दिहाड़ी मजदूर है, कोरोनाकाल में न तो उनको कोई काम मिल रहा है और न ही भविष्य में किसी तरह के काम-धंधे की उम्मीद देख पा रहे हैं। आज जहाँ लोग लॉकडाउन के चलते घरों में कैद है, तो ये बच्चे अपने बचपने को खूंटे पर बांधकर जिम्मेदार बच्चे होने का परिचय दे रहे हैं, कुछ बच्चे दो जून की रोटी के लिए लकड़ी ढोते दिख रहे है, तो कुछ बच्चे भोर होते ही साइकिल पर सब्जी बेचने निकल लेते हैं। कई लोग एवं समाजसेवी संस्थाएं अपने-अपने स्तर से एक दूसरे की मदद को आगे आ भी रहे हैं। लेकिन इन बच्चों की सूजबूझ इन्हें अन्दर से स्वाभिमानी भी बना रही है और ये अपने ढंग से हर रोज अपने परिवार का पेट भरने के लिए मेहनत करते है। शायद इनके बचपन पर भूख की आग भी भारी पड़ रही है।
ऐसे ही अपने काम में मग्न कुछ बच्चों से हमने बात करने का प्रयास किया तो तोतली व भोली जबान में जब इन्होंने अपने घर के हालातों को बयां किया कि हम ये काम हर दिन करतें है, तो मन सहम गया और यकीन मानिये कलम रुक गई।
अपने भविष्य को छोड़ पूरे परिवार का पेट पालन के लिए रोज ये बच्चें अपनी साइकिल पर खेतो में उगाए सब्जियों को लेकर बेचने निकल जाते है। सबेरे से सांझ तक सब्जियां बेच जब घर जाते है तो अपने छोटे भाई-बहन के लिए छोटे से उपहार जरूर ले जाते है। जिसके मुस्कान से ये बच्चे अपनी थकान को भुलाने का प्रयास करतें है। ये जिम्मेदारी तो एक पिता ही निभाते हैं लेकिन इन बच्चों बीड़ा उठाया है।
आगे बातचीत करते हुए बच्चे कहते हैं माँ को हम भूखा नही देख सकते। इसलिए अभी से जिम्मेदारी संभाल ली हैं। पहले तो माँ गांव के खेतों और प्रधान जी के द्वारा दिए गये मजदूरी में काम कर के दो जून की रोटी की व्यवस्था कर दिया करती थी, लेकिन बीते कुछ महीनों से वो घर पर ही हैं। खुद भूखे सो कर हमें खाना खिलाती रही। अब हम बचपन को भुलाकर इस नई जिम्मेदारी को अपना लिए है। इस वैश्विक महामारी की इस देन को हम शायद आखिरी समय तक नही भूलने वाले है।
वो अठखेलियां जो इन्हें नसीब नहीं
बचपन का दूसरा नाम नटखटपन ही होता है। शोर व ऊधम मचाते बच्चे सबको अच्छे लगते हैं। ये देखकर हम सभी को भी अपने बचपन की सहसा याद आती है। बचपन मे मिलकर घरोंदा बनाकर खेलना, मिट्टी मुंह पर लगाना तो कभी मिट्टी खाना, बाहर निकलकर खेलते रहना, पानी में कूदना, पालतू जानवरों को परेशां करना किसे याद नहीं? इसके बाद मां की प्यारभरी डांट-फटकार से कुछ देर के लिए मायूस होना कौन भुला पाया होगा। इन बदमाशियों भरी बातों से लबरेज है सारा बचपन। तकनीकी विकास चलते आज का बचपन स्मार्टफोन पर गेम खेलते, विडियो देखने और फोटोशूट करने में बीता जा रहा है।
बचपन में ही अपने परिवार की जिम्मेदारी संभाल लेना सोच से भी परे लगता है। ये कहानी इन बच्चों की ही नहीं है ऐसे लाखो बच्चें है जिनका बचपन शायद कहीं खो गया है। हम सबको इस ओर बढ़ना होगा, सरकार, प्रशासन और समाज को आगे आकर ऐसे बच्चों की मदद करनी चाहिए। इनके बचपन को बचाना हम सभी की जिम्मेदारी होनी चाहिए। आइये! इन मजबूर बच्चों का बचपना बचाये।
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