शिक्षा-व्यवस्था, परसेंट जरुरी है या काबिलियत….
Poonam Masih
पढ़ाई एक ऐसी चीज है। जिसका कीड़ा बचपन से ही दिमाग में भर दिया जाता है। पहले कीड़ा फिर रिश्वत। नर्सरी से ही हमारा और पढ़ाई के बीच का सौदा शुरु हो जाता है। फस्ट आएं तो ये मिलेगा, टॉप किए तो यहां घुमाने ले जाया जाएगा। मतलब साफ है रिश्वत की एक पूरी लिस्ट शुरुआती दिन से ही शुरु हो जाती है जो अंत तक चलती रहती है। जब तक पढ़ाई न पूरी कर लें। लेकिन धीरे-धीरे पढ़ाई के तौर तरीकों में भी परिवर्तन आ गया है। पहले टेक्नोलॉजी इतनी ज्यादा नहीं थी तो कम्पटीशन भी कम था। लेकिन अब जैसे- जैसे टेक्नोलॉजी विकसित हो रही है, कम्पीटशन में बढ़ोतरी हो रही है, इसके साथ ही पढ़ाई के स्तर में भी कमी आई है।
एक दशक पहले कोई नहीं पूछता था परसेंट….
आज से दस साल पहले तक परसेंटेंज की कोई बात नहीं होती थी। सबकुछ डिजीवन पर डिपेंड करता था। लेकिन अब तो स्थिति है कि सीधे 100 प्रतिशत नंबर आते हैं। आज से दस साल पहले तक बमुश्किल ही लोगों को 90 प्रतिशत नंबर आते थे। लेकिन उस वक्त परसेंटेज की इतनी डिमांड नहीं थी जितनी आज है। मैं स्वयं पश्चिम बंगाल से पढ़ी हूं। जब मैंने 10वीं की परीक्षा दी थी। रिजल्ट चार कैटेगरी में बनते थे। फर्स्ट, सेकेंड थर्ड डिविजन और 80 प्रतिशत से ऊपर वाला स्टार डिविजन। हमारे दौर से ऐसा माना जाता था स्टार डिविजन वाले बच्चें ही सबकुछ करेंगे। लेकिन आज दस साल बाद पता चला कि थर्ड डिवीजन से पास करने वाली लड़की दुबई के किसी फाइव स्टार होटल में मैंनेजर और स्टार डिवीजन वाली जिदंगी में ज्यादा कुछ नहीं कर पाई। हमारे नंबर नहीं निर्धारित करते है कि हम कल क्या होगें हमारी काबिलियत हमें बताती है कि हम कितनी दूर की रेस में भाग ले पाएंगे।
बात काबिलियत की ही होनी चाहिए….
डिविजन का सिस्टम कहीं न कहीं बच्चों में इंफिरियर कॉम्पलेक्स कम लाता है। हमारे समय में क्लास 10 में 480 में फर्स्ट डिविजन होता था, 361 से 479 तक नंबर लाने वाले बच्चे सेकेंड डिविजन होते थे और उससे नीचे वाले सब थर्ड। 600 से ऊपर लाने वाले बच्चे स्टार होते थे। डिवीजन का सबसे अच्छा फायदा यह होता था कि कोई भी आपसे आपका नंबर और परसेंटेज नहीं पूछता था। अगर किसी बच्चे ने कह दिया कि वह सेकेंड डिवीजन है तो ऐसा माना जाता था कि वह पढ़ने में ठीक है।
लेकिन परसेंटेज ने बच्चों के बीच एक अजीब का कम्पीटीशन बना दिया। जहां दौड़ सिर्फ प्रतिशत का साइन बढ़ाने की है। इस दौड़ में बच्चे इस हद तक उलझ गए हैं कि वह शत प्रतिशत में खुश नहीं है। इन सबके लिए उनके माता पिता भी जिम्मेदार है जो बच्चों को अच्छे परसेंटेज के लिए परेशान कर रहे हैं। वैसे पड़ोसी भी जिम्मेदार हो बच्चों के प्रेशर को और बढ़ाते हुए अपनी गपशप को नए-नए ट्विस्ट देने के लिए उनके परसेंटेज का कम्पेयर फलाने ढिकाने के बच्चे से करने लग जाते हैं। और उनको और निराश कर देते हैं। जबकि कुछ समय के बाद पता चलता है कि प्राइवेट नौकरी में तो परसेंटेंज का तो कोई काम ही नहीं है। वहां तो आपका स्किल देखा जा रहा है। जबतक बच्चे को यह बात समझ में आती है तब तक बहुत देर हो गई होती है। वह जिदंगी के कई हसीन लम्हों को किताबों के काले अक्षरों मे ही बिता चुका होता है। जैसे कोटा फैक्ट्री वेब सीरीज में जीतू भैया बताते हैं।
हिंदी में 100 में 100 अंक शिक्षा व्यवस्था पर ही सवाल खड़ा करता है….
जिस हिसाब से बच्चों के परसेंटेज आ रहे हैं। वह कहीं न कहीं देश की शिक्षा व्यवस्था पर ही सवाल खड़ा कर रही है। ऐसा क्या पढ़ाया जा रहा है कि बच्चें कुछ गलती नहीं करते। हिंदी में 100 में से 100 ला रहे हैं। जबकि हिंदी में तो बिंदी के लिए भी नंबर काटे जाते हैं। मतलब अब हिंदी में ऐसा क्या पढ़ाया जा रहा है कि बच्चें एक भी गलती नहीं कर रहे हैं। मैथ्स में बच्चे 100 में 100 लाते है तो कोई परेशानी नहीं लेकिन अगर कोई स्टूडेंस भाषा में 100 में से 100 लाता है तो यह पूरी शिक्षा व्यवस्था पर ही सवाल खड़ा करता है। आजकल सबसे ज्यादा बहुविकल्पीय प्रश्न(मल्टीपल च्वाइस) के सवाल पूछे जाते हैं। यह व्यवस्था बच्चों की तार्किक शक्ति को भी कमजोर कर रहा है। बहुविकल्पीय प्रश्न के लिए आपको ज्यादा दिमाग लगाने के जरुरत नहीं पड़ती है। रट्टा मारो और आगे बढ़ो। जब ऐसी प्रवृत्ति बच्चों की तार्किक शक्ति को कम करती है। क्योंकि जबतक आप किसी प्रश्न का जवाब अच्छे तरह से नहीं लिखेगें जबतक उसके बारे में पूरी जानकारी नहीं मिल पाती है। इसलिए जरुरी है कुछ शिक्षा व्यवस्था मे कुछ चीजों को बदलने की जरुरत है। ताकि जब कल हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी आवाज उठाएं तो कम से कम कोई नहीं तो सोशल साइंस के स्टूडेंट्स कोई तर्कपूर्ण जवाब दे सकें।