गुलाम-ए-आराम-जिन्दगी

मौसम जायसवाल – 19/05/2020 9:44 AM

ज़िंदगी चल नहीं रही, तसल्ली से किसी कोने में पड़ी आराम फ़रमा रही है।
ऐसा लगता है मानों मैं कोई मानव नहीं मशीन हो गया हूँ।

जिसमें जीने को किसी नें कुछ सॉफ्टवेयर डाल दिए हैं और वो खुद कहीं शान से बैठकर भावनाओं के रिमोट से मुझे अपनी इच्छानुसार कंट्रोल कर रहा है।

सुना है दुनिया ख़त्म होने वाली है और कल से तो पानी की आवक भी बंद हो गयी है।
पर पिछली रात महसूस हुआ कि यादों के बर्तन में थोड़ी नमी अब भी बाकी है।

हाँ उनमें जो थोड़ा-बहुत पानी जमा है वो खारा ही सही मगर कुछ दिन और जीने को काफी है।
सबक-ए-ज़िंदगी का बिस्तर भी है जिसपर सोते हुए आजकल घबराकर बैठ जाता हूँ।

नहीं नहीं सपनों में ही नहीं असलियत में जाग जाता हूँ।
बिजली का अता-पता नहीं मगर इंसानियत की रोशनी से अंधेरे को दूर भगाता हूँ।

हाँ मैं आजकल जागते हुए सोता हूँ और सोते हुए जाग जाता हूँ।

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