नारी शक्ति का प्रतीक: देवी अहिल्याबाई होलकर
डॉ. अमर सिंह
भारतवर्ष में अनेक ऐसी महिलाएं हुई जिनका नाम इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में लिखा हुआ है। कई क्षेत्रों में तो महिलाएं पुरुषों से भी आगे दिखाई देती हैं। उन्होंने अधिक कुशलता से महत्वपूर्ण कार्य करके दिखाया है। मध्यकालीन भारत के होल्कर राज्य की महारानी अहिल्याबाई का नाम भी इसी गौरवपूर्ण परंपरा में प्रमुखता से लिया जाता है। उनके धार्मिक एवं जनकल्याणकारी कार्यो के कारण उनकी प्रजा उन्हें ‘लोकमाता’ कहती थी। जीवित रहते ही उन्होंने ‘देवी’ की पदवी प्राप्त की। आधुनिक समय में यदि अहिल्याबाई के ‘सब का भला, अपना भला’ के मार्ग का अनुसरण किया जाए तो बहुत ही जटिल समस्याओं का समाधान आसानी से हो सकता है।
अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 ई. में महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के चांदी ग्राम में पिता मानको जी शिंदे एवं माता सुशीला के घर में जन्म हुआ। अहिल्या बचपन से ही पूजा-पाठ आदि धार्मिक कार्यों में रुचि रखने वाली कुशाग्रबुद्धि बालिका थी। उनका विवाह होलकर राज्य के संस्थापक, इंदौर राज्य के शासक, धनगर मराठा वीर मल्हारराव होलकर के इकलौते पुत्र खंडेराव के साथ सन 1735 ई. में हुआ। मल्हारराव ने अपनी पुत्रवधू को राज-काज, युद्ध कला, घुड़सवारी एवं राजनीति के दांव पेच की शिक्षा दी तथा अहिल्या ने एक योग एवं विनम्र शिष्या की भांति शिक्षा ग्रहण की। आवश्यकता पड़ने पर वह मल्हारराव के साथ युद्ध क्षेत्र में भी जाने लगी। खंडेराव राज्य के कार्यों कार्यों में कोई रुचि नहीं लेते थे। अहिल्याबाई के व्यवहार एवं सेवा भाव से प्रभावित होकर खंडेराव भी राज्य कार्यों में रुचि लेने लगे।
तत्कालीन मराठा साम्राज्य के प्रमुख चार स्तंभों में मल्हारराव होलकर एक स्तंभ थे। राजपूतों के अधिकांश राज्यों एवं भरतपुर के शासक सूरजमल से चौथ के रूप में मल्हार राग टैक्स वसूल करते थे। एक बार सूरजमल ने टैक्स देने से इंकार कर दिया तो, खंडेराव ने टैक्स वसूल करने के लिए भरतपुर को चारों ओर से घेर लिया। तीन महीनों तक युद्ध चलता रहा 1 दिन छिपकर घात लगाकर बैठे शत्रुओं ने खंडेराव पर गोलियों की बौछार कर दी। खंडेराव की वहीं मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर मल्हारराव होलकर वहां गए, उधर सूरजमल ने भी संधि कर ली और बकाया टैक्स चुका दिया। अहिल्याबाई अपने पति के साथ सती होना चाहती थी। मल्हारराव ने अहिल्याबाई को सती होने से रोकते हुए कहा- मैं पुत्र और तेरे बिना इस राज्यभार को कैसे संभाल सकूंगा। खंडेराव के बाद अब तू ही तो मेरा बेटा है। तू भी अगर लोक राज के डर से सती हो गई तो मुझे कौन संभालने वाला रह जाएगा। अंत में होलकर राज्य की जनता के कल्याण के लिए सती होने का विचार त्याग दिया। अपने इकलौते पुत्र की मृत्यु से मल्हार राव टूट से गए थे। अंत में 20 मई 1766 ई. में वह शेर चिर निद्रा में सो गए। मल्हारराव के बाद उनका पुत्र भालेराव राजगद्दी पर बैठा पर बीमारी के कारण वह भी जल्दी चल बसा। पहले पति, फिर ससुर और अब पुत्र के निधन के बाद अहिल्याबाई अंदर से टूट गई थी। इस पर भी कुछ स्वार्थी और प्रपंची लोग राज्य हड़प करने के लिए कुचक्र रचने लगे। प्रजा के प्रबल इच्छा का सम्मान करते हुए अहिल्याबाई होल्कर ने 1767 ई. में इंदौर राज्य के सिंहासन पर आरूढ़ हुई।
देवी अहिल्या बाई होल्कर ने अपने शासनकाल में बहुत ही कम युद्ध किए। उन्होंने अपनी सैन्य शक्ति का उपयोग दूसरों का राज्य हड़पने में नाकर के अपने राज्य की सुरक्षा के लिए किया। जब अहिल्याबाई गद्दी पर बैठी तो उदयपुर एवं अन्य राजपूत राज्यों को एक विधवा नारी अहिल्याबाई की अधीनता स्वीकार्य नहीं हुई तथा उन्होंने रामपुर के चंद्रावत पर चढ़ाई कर दी। उस युद्ध में अहिल्याबाई की जीत हुई और चंद्रावत को तोप के मुंह में बांधकर उड़ा दिया गया इससे सारे विद्रोही डरकर अहिल्याबाई के शरण में आ गए।
उन दिनों लुटेरों, चोरों और डकैतों से जनता त्रस्त थी। महारानी ने हमेशा के लिए चोर डाकुओं के आतंक को मिटा कर जनता को राहत दी। एक तरफ निमाड़ में भीलों ने उपद्रव मचा रखा था। वे राहगीरों एवं व्यापारियों के सामान को लूट लेते थे। महारानी ने भीलों के सरदार तथा उसके प्रमुख साथियों को पकड़कर जेल में जेलों में बंद कर दिया और कठोर दंड दिया। इस कठोरता के कारण अन्य उपद्रवियों ने देवी के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी। उन भीलों को खेती-बाड़ी तथा अन्य काम धंधे की सुविधाएं उपलब्ध करायी जिससे वे लोग अपना जीवन पालन सुखपूर्वक करने लगे।
अहिल्याबाई एक कुशल एवं न्याय प्रिय शासिका थी। वह एक साधारण परिवार में उत्पन्न हुई थी, किंतु अपने सच्चरित्र, कठोर परिश्रम, दृढ़ निश्चय एवं आत्मबल के कारण एक समृद्ध राज्य की जन प्रिय शासिका बन गई। अभिमान उनको छू नहीं पाया। प्रजा से पुत्रवत स्नेह करती थी तथा सभी से समान भाव से मिलती थी। सभी की परेशानियों को सुनकर उनका उचित निराकरण कर दी थी।
उन्होंने इंदौर को छोड़कर नर्मदा नदी के तट पर महेश्वर को अपनी राजधानी बनाया तथा वही एक साधारण से छोटे घर में रहती थी। उसी से लगा हुआ एक सरल सात सभागृह था, जहां बैठकर वे बड़े बड़े निर्णय लेती थी। किसी भी इतने बड़े शासक का इतना छोटा आडंबरहीन निवास स्थान मिलना असंभव है। उनके कार्यों के कारण ही जनता उन्हें लोकमाता कहती थी तथा जीते जी कि उन्हें देवी की उपाधि दी गई। वह प्रातः काल पूजा-पाठ के बाद दरबार करती तथा संध्याकाल तक जनता की शिकायतें सुनती। संध्याकालीन पूजा के उपरांत से देर रात्रि तक दरबार करती और राजकाज पर निर्णय लेती। उन्होंने धर्मआचरण पूर्वक राजकीय जीवन को पूर्ण पवित्रता प्रदान की। वे प्रजा के हित के कार्य करते हुए उनकी सुख सुविधाओं में वृद्धि करना तथा उनकी नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति में सहयोग देती।
देवी अहिल्याबाई होल्कर ने देश के प्राय: समस्त तीर्थ स्थानों में मंदिर, घाट, कुँए, बावड़ी, धर्मशाला और अनेक भवन बनवाए। काशी से कोलकाता तक के मार्ग की मरम्मत करवाई। देवी अहिल्याबाई के मार्गदर्शन एवं संरक्षण में महेश्वर का वस्त्र उद्योग दिन प्रतिदिन उन्नति करता रहा। उन्होंने समरसता एवं भाईचारे की मिसाल उपस्थित करते हुए बाहर से मुस्लिम बुनकरों को बुलाकर महेश्वर में बसाया और पूर्ण संरक्षण दिया।
13 अगस्त 1795 ई. को देवी अहिल्याबाई ने अंतिम सांस ली। उन्होंने होलकर राज्य पर 29 वर्ष के लंबे समय तक शासन किया। देवी अहिल्याबाई का नाम संपूर्ण भारत में बड़े आदर और श्रद्धा के साथ लिया जाता है। समाज एवं राष्ट्र के लिए उनकी अपरिमित देन रही है।
कलमकार संस्कृत विषय से पीएचडी एवं दिल्ली के सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल रह चुके हैं, वर्तमान में समाजसेवी हैं।
डिस्क्लेमर: यह कलमकार के व्यक्तिगत विचार हैं। जरूरी नहीं कि यह विचार या राय VoxofBharat के विचारों को भी प्रतिबिंबित करते हों। कोई भी चूक या त्रुटियां कलमकार की हैं अतः VoxofBharat उसके लिए ज़िम्मेदार नहीं है।
लोकमाता देवी अहिल्याबाई होलकर जी की जयंती के उपलक्ष में जो डॉक्टर अमर सिंह धनगर जी ने यह लेख लिखा है वह सराहनीय है और हम आशा करते हैं भविष्य में वह लोकमाता देवी अहिल्याबाई होलकर और धनगर समाज के बारे में इस प्रकार के अच्छे लेख और विचार प्रकट करते रहें .