श्रमिक दोयम दर्जे का मानव क्यों रह गया?
आलोक चांटिया – 21/05/2020 23:29 PM
21 मई 2020 दिन गुरूवार संपूर्ण लॉकडाउन का 58 वां दिन इस बात को कहने में शायद किसी को आपत्ति हो सकती है लेकिन जिस तरह से भारत की उन गरीब श्रमिक और कामगारों ने अपने आत्मबल और अपने स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए 58 वें दिन अपने 56 इंच के सीने को सामने रखा है वह एक वंदनीय प्रयास है।
कहते हैं कि शरीर से निकले हुए पसीने की बूंद का सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि वह श्रम से उत्पन्न हो रहा है, लेकिन जिस प्रकार से श्रमिकों के साथ (फैक्ट्री मालिक आदि) उन सभी ने जिस तरह का नकारात्मक और उपेक्षापूर्ण व्यवहार देश में लॉकडाउन के दौरान अपने यहां काम करने वाले श्रमिकों के साथ प्रदर्शित किया वह अशोभनीय, अमानवीय, और क्रूरता है, जिस व्यक्ति से आप महीनों सालों काम लेते रहे और जिसने आपको अतिरिक्त उत्पादन एवं मूल्य सभी से आच्छादित करके अमीर की श्रेणी में खड़ा किया। जिसके कारण ही आप समाज के गणमान्य व्यक्ति कहलाये जिसके कारण ही समाज में आपको गुणवत्ता के प्रतीक चिन्ह और पुरस्कार दिए जा रहे हैं और जिसके कारण ही आप की पहुँच सत्ता के गलियारों से लेकर सदनों तक हो रही है।
जमीन पर काम करने वाले कामगार के लिए इस देश में कारखाने और फैक्ट्री 90 या 120 दिन सुबह-शाम रोटी नहीं उपलब्ध करा सके इससे बड़ी अवधारणा और क्या हो सकती है कि लगातार काम करने के बाद भी किसी भी फैक्ट्री कारखाने के मालिक और मजदूरों के बीच कोई भावनात्मक संबंध उत्पन्न ही नहीं हुआ। वसुधैव कुटुंबकम की भावना अपने ही देश में तिरोहित हो गई है भूख प्यास और कठिनाई में रहने वाले मजदूरों को देखकर मालिकों के दिल पिघले तक नहीं बल्कि उससे ज्यादा उनको यह चिंता सताती रही कि कहीं उनके तिजोरी में नोट कम ना हो जाए।
केवल सरकार का यह कर्तव्य नहीं होना चाहिए कि वह संविधान की रक्षा करने का दायित्व निभाते आ रहे यह कर्तव्य समस्त भारतीयों का होना चाहिए कि संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 की संपूर्ण सुरक्षा करे। यदि देशभर में व्यवसायियों के पास इतना धन संचय नहीं था कि वह अपने यहां काम करने वाले कामगारों को लगातार 100 दिन तक भोजन उपलब्ध करा सकें तो सरकार को उन सभी व्यवसायियों से एक शपथ पत्र जरूर लेना चाहिए कि वर्तमान में जब देश संकट में है तो कोरोना संक्रमण से ग्रसित और लॉकडाउन के कारण सारे काम-काज ठप हैं उस स्थिति में भी इन व्यवसायियों के पास इतना भी धन उपलब्ध नहीं है जिससे वह किसी गरीब को लगातार रोटी दे सकें और उस शपथ पत्र के आधार पर ही इन सभी के खाते सील होने चाहिए क्योंकि यह नैतिक और विधिक दायित्व उन लोगों का होना चाहिए था।
जिन लोगों ने अपने कारखाने, फैक्ट्री को चलाने के लिए देशभर के श्रमिकों को अपने यहां काम पर रखा और उन श्रमिकों में यह आशा उत्पन्न की कि उनका भी जीवन चल सकता है वह भी जी सकते हैं ऐसे में अचानक उनके जीवन से रोटी को छीन लिए जाने वाली स्थिति पैदा करना किसी भी तरह से विधिक रूप में ना तो आच्छादित होना चाहिए ना उसे परिभाषित किया जाना चाहिए। इन सभी लोगों को उन श्रमिकों की दुर्दशा उनकी मृत्यु का भी दोषी माना जाना चाहिए, एक जानवर भी यदि जान लेता है कि उसे सुबह शाम किसी घर से रोटी मिलने लगेगी तो फिर वह उसी क्षेत्र और उसी घर में 24 घंटा रहने लगता है।
ऐसे में इस बात का प्रचार करने वाले समस्त एजेंसी, सरकार और गैर सरकारी संगठन इस बात को निश्चित रूप से सुनिश्चित करें कि इस बात का प्रचार किया जा रहा है कि सभी को पर्याप्त भोजन दिया जा रहा है सभी के रहने की पर्याप्त व्यवस्था है उसकी सच्चाई कितनी है क्या कारण है कि सारी सुविधाएं होने के बाद भी श्रमिक विचलित हो गया। कोरोना जैसी महामारी के स्पष्ट संकट के जानकारी के बाद भी वह सड़कों पर पैदल निकल पड़ा। भूखा प्यासा जेठ की गर्मी में तपता यह भारतीय क्यों पागलों जैसी स्थिति में पहुंचकर हजारों किलोमीटर दौड़ने लगा क्या सिर्फ और सिर्फ यह लोगों को सदनो तक पहुंचाने वाले वह 18 वर्ष पूर्ण कर चुके जीवित मांस के पिंड है जिनको सिर्फ न्यूनतम रूप से इसलिए जिंदा रखा जाना आवश्यक है ताकि लोग सदनों में पहुंच सके या फिर जिनके माध्यम से लोग सदनों तक पहुंचे हैं वह इन्हें भगवान का दर्जा प्रदान करके हर पल हर क्षण की पूजा करते कण-कण में भगवान होने की अवधारणा को सत्य सिद्ध करते हैं।
एक श्रमिक के कुचल जाने ट्रेन से कट जाने डीसीएम के पलट जाने से मृत्यु को भगवान की मृत्यु के स्वरूप क्यों नहीं समझा गया अपने ही देश का दर्शन झूठा क्यों साबित हो गया एक श्रमिक सिर्फ जानवरों से थोड़ा ऊपर सिर्फ मानव श्रेणी में इसलिए खड़ा रह गया क्योंकि उसे मानव कहकर प्रजातंत्र की परिभाषा सत्य की करते हुए लोग जनप्रतिनिधि बन सकते थे। जिन जिन क्षेत्रों के जनप्रतिनिधियों के होते हुए भी श्रमिकों को समस्या हुई है उन सभी जनप्रतिनिधियों को इसके लिए विधिक रूप से उत्तरदाई माना जाना चाहिए आखिर वह जनप्रतिनिधि किस बात के लिए बने किस बात का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
यदि उनके क्षेत्र में रहने वाला व्यक्ति मर रहा, तपती धूप में पैर में छालों को लेकर दौड़ रहा है क्या इससे बड़ा भी कोई अपराध हो सकता है? क्या कारण है कि इनके लिए उत्तरदाई सारे अपराधी व्यवसायी जनप्रतिनिधि चुपचाप आराम से अपना जीवन जी रहे हैं? जिनके कारण कोई व्यवसाय और जनप्रतिनिधि बनकर देश की तमाम सुख सुविधाओं को खुलेआम लूट रहा है उन सबके सामने ही संविधान के अनुच्छेद 14 से आच्छादित एक संपूर्ण भारतीय क्यों आज यह मानने के लिए तैयार ही नहीं हो पा रहा है कि वह मनुष्य है!
जिस तरह से उत्तर प्रदेश के औरैया में हुई दुर्घटना में मारे गए श्रमिकों की लाश के साथ जिंदा श्रमिकों को भी उनके घरों में भेजा गया उससे बड़ा अपराध क्या है? संभवत जो व्यक्ति मरा है वह कोरोनावायरस संक्रमित हो ऐसे व्यक्ति के साथ जिंदा व्यक्तियों का बैठाया जाना क्या एक अपराध नहीं है? इसके अतिरिक्त तपती धूप में जब लाश को बहुत देर तक सुरक्षित नहीं रखा जा सकता ऐसे में एक अंतहीन सफर पर लाश के साथ एक जिंदा व्यक्ति को रखना क्या अपने आप में एक निंदनीय अपराध नहीं? क्या खुलेआम अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन नहीं इससे बड़ा मानवाधिकार उल्लंघन और क्या हो सकता है? सरकार को चाहिए जिन भी अधिकारियों और जिन लोगों ने इस तरह का निर्णय लिया है। उनके विरुद्ध कठोरतम कार्यवाही की जाए क्योंकि ऐसा करके ना सिर्फ उन्होंने सरकार को बदनाम किया है बल्कि उन्होंने स्पष्ट रूप से संदेश दिया है कि वह कामगार श्रमिकों को मनुष्य की श्रेणी में अपनी तरह समझते ही नहीं है।
आज 56 वें दिन यह विश्लेषण देश के समस्त नागरिक को करना होगा कि वह किन अर्थों में किसी के लिए नौकरी करता है। उसके सम्मान उसकी गरिमा उसकी समानता के लिए वह मालिक क्या करते हैं? जिनको वह मालिक जैसे शब्द से सुशोभित कर समाज का प्रतिष्ठित व्यक्ति बनाता है जिस दिन इस आकलन को ठीक से समझा जाएगा उसी दिन संविधान और संविधान को परिभाषित करते हुए अनुच्छेद संभवत इस देश में स्थापित हो पाएंगे यहां रहने वाला भारतीय वास्तविक मनुष्यता और मनुष्य की परिभाषा में गरिमापूर्ण जीवन जी पाएगा।